फिर मुलजिम बन गया है मेरा मन,
उल्ज़न है की कीमत वसूलता है मेरा मन।
आसमानी क्वाहिश हुई और खो गयी कही,..
आरज़ू भी अपने खयालात को लेके नाचती रहती है,
जैसे ये नग्न शाम खूबसूरती सवरती रहती है,
है लेकिन बस युही कल का फैसला,
चल रहा है दीमक कतरा लहू का...
आज भी आग लगी और बुज़ नहीं पायी ....
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